सबकुछ जैसे चल रहा है,
कितना कुछ बोल रहा है,
मैं, तुम, क्या ऐसे ही थे?
सब हमेशासे ऐसा ही था?
विचारधारा, सपने, सनक और स्वार्थ में खोया हुआ।
आज एक सार्थक शब्द नहीं लिखा जा रहा।
फिरभी बेईमानी से पन्ने भरे जा रहे है।
बंद कमरों में सिखने-सीखने की ये पढाई,
इस दौर का झूट नहीं तो क्या है?